Saturday, November 8, 2008

नये हस्ताक्षर।



युग का परिवर्तन हुआ
कार्य में सृजन हुआ
एक लम्हा उसके लिए
सिर्फ नये हस्ताक्षर में
विकट परिस्थिति
सहयोगात्मक भाव
निराला इस दुनिया में
घर के रसोई से
कलम भी बोलने लगे
स्त्री चरित्र पर
नये हस्ताक्षर होने लगे
इस युग का गाथा
बेड रूम के मेज
पर सजने लगे
अपने सृजन को
शब्दों को बदला
नये युग में
विचारों को जोड़ा
स्त्री की व्यथ स्त्री ने ही लिख डाला।
जीवन की कसौटी में
खड़े.किए
नये हस्ताक्षर

कमसीन बनी श्रमशील।


नया राज्य
पर
जीवन रूका -रूका सा
दिमाग खाली पड़ी
कमसीन बनी श्रमशील
नगे पंाव
चुडा के पोटली
मट मैले कपडे+।
मन में आकंाक्षा।
सब पर भारी भूख
चली ट्रेन से
सूखे आंेठो को
आंसू से भींगाते
कल की चिन्ता
महानगर की गली
काम की तलाश
भटकन और भटकन
अन्ततः वही जूठन
की सफाई
खेतों- वनों की कुमारी रानी, बेटी, माईकमसीन
बनी रेजा- कुली- मेहरी
दाई बस
श्रम बेचने वाली श्रम’ाील

Thursday, November 6, 2008

झारखण्ड में बालिका शिक्षा बाईसाइकिल पर

अलोका
झारखण्ड में बालिका शिक्षा की स्थिति अब साइकिल पर आकर रह गयी हे। आदिवासीए दहिलत राज्य वाला झारखण्ड में बालिकाओं को शिक्षा संस्था तक पहुंचने के लिए साइकिल बांटी जा रही है। लड़कियां का इस माध्यम से स्कूल तक पहुंचा दिया गया हैं। साइकिल में बैइकर स्कू जलाने की अंकाक्षा मन में सरकार ने पूरी कर दी इससे हर गांव कस्बों की लड़कियां को स्कूल का मुहं देखने का मौका मिल गया। लेकिन स्कूल में उन्हें अपने उत्पाद के साथ वाली शिक्षा अब तक नहीं मिल पा रहीं है। हजारों की संख्या में शिक्षा प्राप्त करने वाली लड़कियां भी अब अपने को सरकारी शिक्षा व्यवस्था से ना खुश है महज डिग्री भर की पढ़ाई के अलावा आगें का रास्ता उनके ंपास नहीं है। हजारों. हजार बालिकाओं को शिक्षा से जो कर एक बेरोजगारी पैदा करने वाली संस्था के नाम पर सरकारी स्कूल ही हैं। हजारों की संख्या में बालिकाओं को शिक्षा संस्थान पहुंचा कर सरकार अपनी वाह. वाही लूट रहीं है।जबकि सरकारी शिक्षण संस्थान से पढ़ने वाली बालिकाओं में आधी से अधिक लडकियां अधुरी पढ़ाई कर महानगरों में पलायन कर जा रहीं है। यह साफ हैं कि स्कूल में पहुंचने से ज्यादा जरूरी शिक्षा की गुणवता पर घ्यान देने की वह सरकार नहीं कर पा रहीं है। साइकिल बांटने से शिक्षण संस्थानों की गुणवता कैसे सरकार बढ़ा सकती यह आने वाला समय बतायेगा। 24 राज्यों वाला झारखण्ड में कई बालिकाओं को शिक्षा से जोने का हुआ है इस जुडने की प्रक्रिया में गुणकारी शिक्षा पीछे रह गये है। बालिका शिक्षा का गुणावता परिर्वन आया है। इस शिक्षा से उन बालिकाओं कितने लाभकारी है इसकी पूर्व योजना या पढ़ाई की उपयोगिता को दर किनार किया गया है। सरकार शिक्षा खेत्र में जनसंख्या बढ़ा सकती हैं किन्तु गुणवता शिक्षा के लिए सरकार के ओर से कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। सब कुछ पूराने ढ़ररे पर चल रहीं शिक्षा प्रणाली अब सिर्फ डिग्री देने योग्य ही रह गयी। शिक्षा से पलायन पर प्रभाव झारखण्ड में आधी आबाी की शिक्षा मिल रहीं वह भी आधी अधूरी । आधी से अधिक गांवों में 5वां या 7 वां कलास तक शिक्षा दी जाती है। गांव के अंदर 5वां से 7 वां कलास तक की पढ़ाई की व्यवस्था आज भी कायम है उच्च शिक्षा के लिए उसे गांव से बाहर जाना पड़ता हैं ऐसी स्थिति में शिक्षा से बालिका उच्च कलास तक एक या दो ही लोग पहुंच पा रहें हैं। बाकी बालिकाएं पलायन कर महानगर में काम की तलाश करने पहुंच जाती हैं। बेबेयानी मिंज गुमला के रहने वाली है उनके परिवार के अन्य सदस्य पढ़े लिखें है बेबेयानी अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाई कारण कि उनके बाहने गावं के बाहर शिक्षा ली हैं पिता की जीवित समय में परिवार में ऐसी व्यवस्था थी कि परिवार से गांव से बाहर जा कर लोग पढ़ सकें गांव में शिक्षा का स्तर काफी खराब है उसका मानना है हम ऐसे शिक्षा लेकर अपना समय बर्बाद करेगे इससे तो कही ज्यादा अच्छा महानगर में मेहनत मजदूर करें तो पेट पल जाएगा। शांति तिर्की बताती है गांव में शिक्षा का जो स्तर हैं उससे हमारा जीविका नहीं चल सकता नयी तकनीकि व्यवस्था से जोड़ने और उत्पादन के साथ जोडने वाली शिक्षा हमारे लिए उपयोगी है। गांव के उत्पाद घटे हे किसान अब श्रमिक बन गये किसान गांव में बचा ही नहीं । शिक्षा के नाम पर सरकार एक रूम बना देती है साइकिल बांट देती है इससे शिक्षा का स्तर नहीं बदलेगा। अन्धाधुन दौहन का क्षेत्र स्कूल वर्तमान झारखण्ड का गांव आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं है वहां के लोग अच्छी शिक्षा खरीद नहीं सकते प्रइभेट शिक्षा संस्थान में अन्धाधुन दौहन शुरू कर दी। सरकारी शिक्षा का गिरता स्तर ने प्रइभेट शिक्षा संस्थाओं को मौका दिया हैं शिक्षा को व्यवसायिकरण करने के लिए जिनते अग्रेजी शिक्षा संस्थान हैं वहा शिक्षा बेची जाती है। उस शिक्षा को खरीदने की क्षमता आदिवासी और दलित समाज नहीं खरीद सकतें है। शिक्षा को उत्पादन के साधन के साथ जाड़ने की जरूरत हमारा समाज की संस्कृति रहीं हैं कि जिस किसी कार्य को उत्पादन के साथ जोड़ कर करने पर वह स्वतः ही उसका विकास हो जाता हैं। लोग जुड जाते हैे भारत के आजादी के 60 साल बाद भी शिक्षा के क्षेत्र में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है। पूंजीवादी व्यवस्था में शिक्षा पूंजीवादी समाज में शिक्षा का बाजार की वस्तु बन कर रह गयी है। सरकार इस स्तर शिक्षा को पहुचाने में खुद जिम्मेवार हैं। जहां सरकारी स्तर पर स्कूलों में पानीए बिजलीए प्रयोगशालाए पुस्तकालय का अभाव लगातार देखा गया है। वहां के शिक्षा स्तर की कल्पना हम कैसे कर सकते पूंजीवादी व्यवस्था ने प्राइभेट क्षेत्र में शिक्षा दी है तो खरीदने पर।

Monday, November 3, 2008

महिलाश्रामिक आज भी चैराहें पर


अलोका
एन- एफ. आई. एवं ए. आई. एफ फेलोिाप के तहत

अपने घर के अन्दर से कार्यरत्त आबादी महिलाओं की रही है। “ाायद आज के दौर में महिलाएं 18 घंटे काम कर रही है। उनके श्रम को पूरे दूनिया ने नकारा है। 21 वी सदी वाली दुनिया में महिलाओं के श्रम नगण्य रही है। श्रम की इस प्रक्रिया में महिलाओं का स्थान भविष्य दिखना संभव नहीं हैं। पूरे भारत में महिला कामगार की संख्या घर, मूहल्ले हर कस्बे, हर खेत, हर बस्ती और न जाने कहांं कहां उनके श्रम कर रही है और करती रहेंगी। पंूजी के बदलते दौर में किया गया श्रम किया गया श्रम ही श्रम माना गया है महिलाओं द्वारा किया गया काम सेवाभाव है। जबकि 21 वी सदी का भारत में पूरी- पूरी महिलाएंं अपने श्रम के बल पर अपना जीवन चला रही है बेटी पैदा होने अैर पांच साल की उम्र के बाद उनके श्रम ’ाुरू हो जाते है। इस श्रम को परिवार, समाज, राज्य, राष्ट्र ने कभी स्वीकारा ही नही। परिवार की नीवें रखने वाली, परिवार चलाने वाली महिलाएं होती है।
पूरे भारत को नजदीक से देखे तब पाएगे कि महिलाए श्रमिक की संख्या सबसे ज्यादा है। भारत की अर्थव्यवस्था में महिलाओं का योगदान रहा है। उनकी श्रम के बल पर आज भी समाज, राज्य, परिवार चल रहे है। एक न्यू बुलेटिन में छपे समाचार के आधर पर वि’व बैक की 1989 की रिपोर्ट के अनुसार गरीबी रेखा के नीचे के 35 प्रति’ात परिवारों की मुखिया महिलाएं है यह परिवार महिलाओ की श्रम, कमाई पर आश्रित है। रिपोर्ट के अनुसार निचले तबको के परिवारों में महिलाओ का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। उत्पादन कार्य में जुटी महिलाएं, श्रम बेचने, श्रम देने एवं आर्थिक उत्पादन पर निर्भर गरीब परिवार महिलाएं है। आज भी दुनिया में समान मजदूरी की लड़ाई जारी है। गरीब परिवार के महिलाओं को आज भी पुरूषो के मुकाबले कम आय (पैसे) मिलते है। परिवार में उनके श्रम को सेवा के रूप में लिया जा रहा है। घर की सुफाई से लेकर बाहर कम किमत पर कार्य कर रही है। इस कार्य की गणना कही भी दर्’ााया नही गया है। एवं गणना नही की जाती है। 21 वी सदी का भारत में सरकारी विभाग, हर प्रतिष्ठान, हर संस्थान, संडकों पर खेतो पर रसोई घर में बाजार, स्वास्थ्य क्षेत्र में हर क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की मांग बढ़ गयी है। कम पैसे में ज्यादा श्रम देने वालेेेेे आज कोई वर्ग है वह है महिला वर्ग । भारत में महिला श्रमिक के संगठन बनने नही दिया गया है। वि’व की महिला श्रमिकों की लड़ाई क्लारा जेटिलन ने महिलाओं की आजादी की मांग को वि’व स्तर पर उठाया था। भारत में महिलाओं ने अपने अधिकार के प्रति सजग हुई पर गति काफी धीमी रही। सेवा के भावना को तोड कर धीरे- धीरे महिलाएं अपने श्रम को मूल्यों के साथ जोड़ना ’ाुरू किया। वह मूल्य काम घंटे के हिसाब से काफी कम है। आज भी भारत के सरकारी नौकरी करने वाले 2 प्रति’ात महिलाओं को छोड़ कर हर क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं के श्रम को आय काफी कम है। इस प्रकार के कार्य सीधे अर्थो में अदृ’य रहते है एवं महिलाओं के योगदान पर राष्ट्रीय मानव संसाधन एवं आर्थिक नीतियां कुछ नहीं कहती।
क्या कारण है कि महिला श्रमिक वर्ग सबसे ज्यादा असंगठित क्षेत्र में कार्यरत्त है। 1991 में किये गये जनगणना के अनुसार 95 प्रति’ात महिलाएं अंसगठित क्षेत्र में कार्यरत्त है। 5 प्रति’ात महिलाएं पुरूषों के कामगार संगठन ट्रेड युनियन या अन्य संगठन में एका हो लेते है। असंगठित क्षेत्र की महिला श्रमिक जहां उन्हें अच्छी सेवा’ात्र्तो एवं बराबर (न्यायपूर्ण मजदूरी) मजदूरी नही मिलती है। न ही वहां उन्हें उत्पादकता बढ़ाने के अवसर मिलते है। काम करने वाले स्थानों में पानी, ईधन, स्वास्थ्य, सुविधा, एवं पलना घर जैसी सुविधाओं का अभाव रहता है। यौन, उत्पीड़न इस क्षेत्र में अत व्याप्त है। ठेकेदार, कुली, मिस्त्री एवं अन्य पुरूष श्रमिक लडकियों, महिलाअेां का यौन ’ाोषण करते है। गरीबी, जानकारी का अभाव, लोकलाज के कारण बात सामने नही आ पाती है।
अंसगठित श्रमिक समाजिक सुरक्षा विधेयक 2007 में महिला श्रमिक कों श्रमिक नही माना है। लोकसभा के स्थाई समिति की कामरेड सुधाकर रेड्डी की अघ्यक्षता में जारी की गई रपट में अंसगठित श्रमिक समाजिक,सुरक्षा विधेयक को प्रस्तुत किया है। उसके कुछ महत्वपूण मुद्दे पर टिप्पणी की जा सकती है। 1. इस विधेयक में उन महिला श्रमिकों को श्रमिक नही माना है जिन्हें वेतन, मजदूरी या बाजार से मुनाफा नही मिलता। वे श्रमिक जो उन संस्थानों में काम करते है जहां 10 से अधिक श्रमिक नियोजित ह, भी सम्मिलित नहीं है, परन्तु यदि संगठन क्षेत्र में कार्यरत होने के बावजूद भी अन्य सामाजिक सुरक्षा काननू का लाभ नही मिलता तब वे सम्मिलत माने जायेंगे। 2. यह विधेय में समाजिक सुरक्षा के लिये श्रमिकों को एक हिस्सा जमा करने का प्रावधान हे। विधेयक राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा एवं कल्याण निधि स्थापित करता है परन्तु इस निधि का प्र’ाासन एवं सामाजिक सुरक्षा के लिए व्यय सम्बन्धी अन्तिम निर्णय के अधिकार सरकार को ही है। 3. सभी अंसगठित श्रमिको का सामाजिक सुरक्षा प्राप्त करने के लिये पंजीकरण कराना होगा और स्वयं इसके लिए आवेदन करना होगा। 4. विधेयक में सामाजिक सुरक्षा बोर्ड के गठन के प्रावधान हे। परन्तु वे स्वायत्त (र्आटोनोमस) नही होगे इन राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय बोर्डो में सदस्यों का नामांकन सरकार करेगी। बोर्डो को सिफारि’ा, सुझाव, योजनाओ की समीक्षा, वि’लेषण आदि के अधिकार है। उन्हें कुछ प्र’ाासिनक अधिकार भी है। 5. सह विधेयक सरकार की कई वत्र्तमान योजनाओं को सम्मिलित कर लेता है परन्तु जो सुरक्षा लाभ दिये है वे बहुत कम स्तर पर है। जैसे 500 रूपयें मातृत्व लाभ 200 रूपये वृद्धावस्था लाभ, स्वास्थ्य के लिये अधिकतम 30,000 रू0 एक वर्ष में आदि। इनमें अधिकतर बीमा आधरित लाभ है। इन रा’िायों का औचित्य अस्पष्ट है। 6. यह विधेयक असंगठित श्रमिकों को आजीविका, नियोजन, जल, जंगल, जमीन स्वयं का घर आदि के सामाजिक सुरक्षा अधिकार नही देता। इसमे श्रम अधिकार, सामाजिक सुरक्षा अधिकार, दलित एवं महिला और प्रवासी श्रमिकों के अतिरिक्त सामाजिक सुरक्षा अधिकार आदि क प्रावधान नही है। सेवा ‘’ार्ते, कार्य के समय सुरक्षा आदि के भी प्रावधान नहीं है। विधेयक विवाद सुलझाने के प्रावधान सम्मिलत करता है परन्तु असंगठित श्रमिकों के प्र’ाासन से उत्पन्न विवादों जैसे विस्थापन, आजीविका सम्बन्धित, पुलिस या नगर- निगम द्वारा आक्रमकता सम्बन्धित विवादों को सुलझाने पर गौन है। खेतीहर महिला श्रमिक पूरा काम का जिम्मा लिए हुए है। बीज डालने से निकावन तक खाना बनाने से लेकर बाजार, बच्चे, पति की सेवा तक करती है। उत्पादन के इस कार्य में प्राचीन समय से महिलांए अपना योगदान देती आ रही है। लेकिन महिला किसान के रूप महिलाओं को कभी स्वीकारा नही गया है। उसका श्रम को महत्व भी नही दी गयी है। उनके बने भोजन को चाट कर भी श्रम की बात नहींं कही गयी है। उसी काम को पुरूष द्वारा बाजार में मूल्यों के साथ काम करते हैं तब वह श्रम में माना जाता रहा है। खेत से घर तक का पूरा काय्र महिलाएं अपने बल पर करती रही है। इसक कार्य को करने में उन्हें श्रमदान करना पड़ता है।
भारतीय संविधान प्रंजातंत्र एवं समानता मूलक रहा है। परन्तु यह वास्तव में समानता की बात स्वीकार सकते क्या? दे’ा में कमजोर तबको तक यह अधिकार पहुंच पाई है। सत्य कहे तो नही पहुंच पाई हैं। सामनता के अभाव के बिना महिला श्रमिक वर्ग ’ाोषण में ढकेले गयें है। वे मुख्यधारा से आज भी बाहर है और जीवन की कुरूरतम से भाग कर अपना बचाव करते है। 60 साल आजादी वाला दे’ा में महिलाएं आज भी मुत वाले चुल्हा- चैका से साथ कम किमत पर काम करने बाहर जाना पड़ता है। आज भी 65 प्रति’ात महिलाएं अ’िाक्षा के ’िाकार है। सबसे ज्यादा गरीब तपका वर्ग महिला है। जिन्होने लम्बे- समय से मुत में श्रम दान देती आ रही है आज भी महिलाएं 18 घंटा काम करती है एवं आम महिला श्रमिक को सामाजिक सुरक्षा, मानवाधिकार, समान पारश्रमिक, कारगार व्यवस्था, आवका’ा, मातृत्व लाभ, विधवा, गुजारा भत्ता, कानुनी सहायता से आज भी वंचित है।